Sunday, March 28, 2010

पंचायती राज व्यवस्था(ग्रामीण स्थानीय शासन)

ग्रामीण परिवेश व कृषि की प्रधानता होने के कारण भारत की आत्मा गाँव में बसती है! स्वतंत्रता के पश्चात भारत सामुदायिक विकास,ग्राम विकास तथा पंचायती राज विकास के भरसक प्रयत्न किये गए ! अति प्राचीन काल से ही भारत में गणराज्य व्यवस्था का रूप देखने को मिलता है ! जिसमे स्थानीय कबीले के लोग अपने मुखिया का चयन करते थे! मौर्य काल में ग्राम स्तर का अधिकारी "ग्रामिक " कहलाता था! मुग़ल काल में गाँव स्तर पर तीन अधिकारी "मुकदम "(देखभाल हेतु ) , "चौधरी " (झगडे सुलझाने हेतु ), "पटवारी"(राजस्व व भूमि कार्य ) का कार्य करते थे, साथ ही साथ गाँव में बढ़े बुजुर्गो की पंचायत न्याय पंचायत तथा जातीय आधारित होती थी! ब्रिटिश काल में पंचायती राज व्यवस्था शिथिल हो गयी थी तथापि गाँव आत्मनिर्भर थे इसी कारण १८३० में इसे "चार्ल्स मेटकाफ" ने "लघु गणराज्य " कहा!



पंचायती राज व्यवस्था का बढ़ता हुआ विकास - १८७० में स्थानीय शासन के विकास की नई अवस्था का जन्म हुआ, उस बर्ष "लार्ड मेयो " का प्रसिद्ध प्रस्ताव पारित किया गया! उस प्रस्ताव में इस बात का समर्थन किया गया की शक्ति का विकेंद्रीकरण किया जाए अर्थात केंद्र से कुछ शक्ति व कार्य लेकर प्रान्तों को दे दिए जाए!
संचार से जुड़े हुए विल्बर शेरम ने शक्ति के केन्द्रीकरण पर बल दिया जबकि महात्मा गाँधी ने कहा की भारत की सर्वाधिक आबादी गाँव में निवास करती है इसलिए सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए


१९२० में भारत शासन अधिनियम १९१९ लागु किया गया जिसके अंतर्गत प्रान्तों में द्वेद शासन प्रणाली लागु की गयी इसमें सत्ता को दो भागो में विभाजित किया गया जिसके द्वारा प्रान्त पर गवर्नर और राज्य के मंत्री उत्तरदायी थे इस प्रणाली में कुछ कार्य विकासात्मक प्रकृति के थे जैसे स्थानीय स्वशासन,सहकारिता ,कृषि जनता द्वारा नियंत्रण मंत्रियो के नियंत्रण में सौपे गए


स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ग्रामीण विकास को नईगति देने हेतु २० अक्तूबर १९५२ को "सामुदायिक विकास कार्यक्रम " विकास खंडो के माध्यम से शुरू हुआ ! यह सामुदायिक विकास कार्यक्रम मुख्यत अमेरिकी विचार है यह एक प्रकार से वह ग्रामीण पुनर्निर्माण के अर्थशास्त्र की परिवती है जिसे यू.एस.ऐ से सीखा तथा विकसित किया गया था सामुदायिक विकास कार्यक्रम की चार विशेषता थी -

(१) व्यापक रूप
(२)आर्थिक पुनर्निर्माण-केंद्रीय तत्व
(३)योजना का अवयवी रूप
(४) सोपान के आधार पर कार्यकर्ता


सन १९५७ में योजना आयोग ने बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में "सामुदायिक परियोजनाओं एवं राष्ट्रीय विकास" सेवाओं का अध्ययन दल के रूप में एक समिति बनाई जिसे यह दायित्व दिया गया की वह उन कारणों का पता करे जो सामुदायिक विकास कार्यक्रम की संरचना तथा कार्यप्रणाली की सफलता में बाधक थी ! मेहता दल ने १९५७ के अंत में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की -लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और सामुदायिक विकास कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु पंचायती राज व्यवस्था की तुरंत शुरुआत की जानी चाहिए ! पंचायती राज व्यवस्था को मेहता समिति ने "लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण " का नाम दिया !समिति ने ग्रामीण स्थानीय शासन के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था का सुझाव दिया!जो निम्न है-
(१)ग्राम- ग्राम पंचायत
(२)खंड -पंचायत समिति
(३)जिला -जिला परिषद्
इन तीनो में सबसे प्रभावकारी खंड निकाय अर्थात पंचायत समिति को परिकल्पित किया गया !बलवंत राय मेहता की सिफारिश के पश्चात पंडित जवाहर लाल नेहरु ने राजस्थान के नागौर जिले में २ अक्तूबर १९५९ को भारी जनसमूह के बीच शुभारम्भ किया!

१ नवम्वर १९५९ को आँध्रप्रदेश राज्य ने भी इसे लागु कर दिया!धीरे -धीरे यह व्यवस्था सभी राज्यों में लागु कर दी गयी,कुछ राज्यों ने त्रि स्तरीय प्रणाली को अपनाया तो कुछ राज्यों ने द्वि स्तरीय प्रणाली को अपनाया! लेकिन पंचायती राज व्यवस्था का यह नूतन प्रयोग भारत में सफल नहीं हो पाया!अत: इसमें सुधार की मांग की जाने लगी,इन्ही कारणों से जनता पार्टी के द्वारा दिसम्बर १९७७ में अशोक मेहता की अध्यक्षता में पंचायती राज संस्थाओं पर समिति गठित की गयी! समिति ने १९७८ में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमे पंचायती राज व्यवस्था का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया! इसकी निम्न सिफारिसे थी-
(१) जिला परिषदों को मजबूत बनाया जाए तथा पंचायती राज को दो भागो में जिला परिषद् और मंडल पंचायत में विभाजित किया जाए!
(२) मंडल पंचायतो का गठन कई गाँव मिलकर करे तथा ये मंडल पंचायत १५००० से २०,००० की जनसंख्या पर गठित की जाए!
(३)न्याय पंचायतों को विकास पंचायतों के साथ नहीं मिलाया जाये!

पंचायती राज व्यवस्था में सुधार के लिए कुछ समितिओं का भी गठन किया गया है जो निम्न है-
जी.वी.के राव समिति- १९८५ में योजना आयोग के परामर्श पर जी.वी के राव समिति का गठन किया गया इस समिति ने कहा की कार्यो के प्रशासन के लिए जिला परिषद् मुख्य निकाय होना चाहिए!जिला परिषद् का मुख्य अधिशासी अधिकारी जिला विकास आयुक्त होगा! जिला विकास आयुक्त का पद जिला कलेक्टर से ऊंचा होना चाहिए!

एल.एम सिंघवी समिति - जून १९८६ में एम .एल सिंघवी के अधीन एक समिति का विचार विमर्श हेतु प्रारूप रखा गया! इस समिति ने संविधान में एक अध्याय को शामिल करके स्थानीय शासन को पहचान, संरक्षण .परिरक्षण हो! इस समिति की सिफारिशे निम्न थी-
(१) ग्राम पंचायत का पुनर्गठन करके उसका विकास किया जाए!
(२) प्रत्येक राज्य में पंचायती राज न्यायाधिकरण की व्यवस्था की जाए!


पी के थूंगन समिति-यह संसदीय सलाहकार समिति की एक उप समिति थी,१९८८ में थूंगन की अध्यक्षता में हुआ था यह समिति केंद्रीय मंत्रिमंडल से सम्बंधित थी इसकी सिफारिशे निम्न थी -
(१) पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक आधार प्रदान किया जाए !
(२)जिला परिषद् पंचायती राज की दूरी होनी चाहिए
(३)पंचायतो का कार्यकाल ५ बर्ष होना चाहिए
(४)जिला कलेक्टर को जिला परिषद् का अधिशासी अधिकारी होना चाहिए
(५)राज्यों में वित्त आयोग का गठन होना चाहिए

१९८९ में पंचायती राज को संवैधानिक आधार प्रदान करने के लिए राजीव गाँधी सरकार द्वारा ६४वां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया! यह लोकसभा में तो पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण यह पारित न हो सका!

संविधान का ७३ वां संशोधन- संविधान का यह संशोधन पंचायती राज व्यवस्था को नया रूप प्रदान करने वाला रहा, यह संशोधन १९९२ को पारित हुआ , २४ अप्रैल को१९९३ में ७३ वां संशोधन लागु किया, इसके अंतर्गत एक नया अध्याय -९ जोड़ा गया ,इसी के साथ अनुच्छेद १६ व ११वी अनुसूची जोड़ी गयी! इसकी प्रमुख सुझाब निम्न थे -
(१)ग्राम सभा
(२)पंचायतों का गठन
(३)पंचायतों में आरक्षण
(४) पंचायतों का कार्यकाल
(५)राज्य वित्त आयोग का गठन
(६)पंचायतों का निर्वाचन
(७) पंचायतों के कार्य - पंचायतो के कार्यो को ११वी अनुसूची में रखा गया है इसके अंतर्गत २९ विषय रखे गए है जिन पर पंचायत विधि बनाकर कार्य कर सकेगी!


पंचायती राज व्यवस्था की उपलब्धियां-
(१) जन सहभागिता
(२)अधिकारों के प्रति चेतना
(३) आर्थिक विकास
(४) महिलाओं की सहभागिता
(५) राजनीतिक जागरूकता
(६) लोकतंत्र का विकास
(७) कार्य संपादन में शीघ्रता

पंचायती राज व्यवस्था की असफलताएं-
(१)अज्ञानता
(२) धन की कमी
(३) दलबंदी
(४) ग्रामसभा का कमजोर होना
(५) जातिवाद
(६)महिलाओं का रबर स्टेम्प होना
(७) राजनीतिक चेतना का प्रभाव

मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था- १९९३ में संसद द्वारा ७३वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित होने के बाद सबसे पहले यह व्यवस्था मध्यप्रदेश में लागू हुई! २९ दिसम्बर १९९३ को मध्यप्रदेश विधानसभा में मध्यप्रदेश पंचायती राज व्यवस्था अधिनियम विधेयक को प्रस्तुत किया गया! इस विधेयक को ३० दिसम्बर १९९३ को पारित किया गया! १९ जनवरी १९९४ को राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया गया! २५ जनवरी १९९४ को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गयी! इसके लागू होने के बाद मई-जून १९९४ में मध्यप्रदेश के प्रथम पंचायत राज चुनाव हुए!






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